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180 में से केवल 37 ही मुसलमान, फिर कैसे हुआ अल्पसंख्यक संस्थान, क्या है AMU के अल्पसंख्यक चरित्र पर लंबे समय से चल रहा कानूनी विवाद?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अक्सर विवादों में रही है। कभी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीरों की वजह से तो कभी उसके अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी चल रही है। एएमयू का इतिहास क्या है, एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर क्या विवाद है? एएमयू को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रहा हालिया मामला क्या है? 

AMU की स्थापना कब और कैसे हुई?

ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने के दौरा सर सैयद अहमद खान को भारतीय और अंग्रेजों में बुनियादी फर्क दिखाई दिया। उनका मानना था कि मुस्लिमों के पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण उनमें शिक्षा की कमी थी। यहीं से उन्हें भारत में एक ऐसा संस्थान खोलने का विचार आया जिसमें धर्म और विज्ञान दोनों की शिक्षा दी जाए। फिर उन्होंने मई 1875 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल (एमओए) कॉलेज की स्थापना की। एमओए ने न केवल पश्चिमी शिक्षा प्रदान की बल्कि इस्लामी धर्मशास्त्र पर भी जोर दिया। सर सैयद ने महिला शिक्षा की भी वकालत की। 1920 में संस्थान को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया और एमओए कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में तब्दिल हो गया। इसी दौरान खिलाफत आंदोलन ने जोर पकड़ा। इसमें एमओयू ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। 

किसी शैक्षणिक संस्थान का ‘अल्पसंख्यक चरित्र’ क्या है?

संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार देता है। यह प्रावधान यह गारंटी देकर अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा देने की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को मजबूत करता है कि यह उनके ‘अल्पसंख्यक’ संस्थान होने के आधार पर सहायता देने में भेदभाव नहीं करेगा। 

विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र कब विवाद में आया?

एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति पर कानूनी विवाद 1967 से शुरू होता है जब भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट (एस. अज़ीज़ बाशा और अन्य बनाम भारत संघ मामले में) 1951 और 1965 में किए गए एएमयू के 1920 अधिनियम के बदलावों की समीक्षा कर रहा था। । इन संशोधनों ने विश्वविद्यालय चलाने के तरीके को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, मूल रूप से 1920 के अधिनियम में कहा गया था कि भारत का गवर्नर जनरल विश्वविद्यालय का प्रमुख होगा। लेकिन 1951 में उन्होंने इसे बदलकर ‘लॉर्ड रेक्टर’ के स्थान पर ‘विज़िटर’ कर दिया और यह विज़िटर भारत का राष्ट्रपति होगा। इसके अलावा, एक प्रावधान जिसमें कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही विश्वविद्यालय न्यायालय का हिस्सा हो सकते हैं, हटा दिया गया, जिससे गैर-मुसलमानों को भी इसमें शामिल होने की अनुमति मिल गई। इसके अतिरिक्त, संशोधनों ने विश्वविद्यालय न्यायालय के अधिकार को कम कर दिया और एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया। परिणामस्वरूप, न्यायालय अनिवार्य रूप से ‘विज़िटर’ द्वारा नियुक्त निकाय बन गया। एएमयू की संरचना में इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा। याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इस आधार पर तर्क दिया कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की और इसलिए, उन्हें इसका प्रबंधन करने का अधिकार था। इन संशोधनों की चुनौती पर विचार करते समय शीर्ष अदालत ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू की स्थापना न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी और न ही इसका संचालन किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि 1920 में  मुसलमान एक विश्वविद्यालय स्थापित कर सकते थे, लेकिन इससे यह गारंटी नहीं मिलती कि उस विश्वविद्यालय की डिग्री आधिकारिक तौर पर भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इसलिए, अदालत ने जोर देकर कहा, एएमयू की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के माध्यम से की गई थी ताकि सरकार द्वारा उसकी डिग्री की मान्यता सुनिश्चित की जा सके। इसलिए जबकि अधिनियम मुस्लिम अल्पसंख्यक के प्रयासों के परिणामस्वरूप पारित किया गया हो सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि विश्वविद्यालय, 1920 अधिनियम के तहत, मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित किया गया था।

क्यों बना रहता है विवाद?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश भर में मुस्लिमों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। जवाब में राजनीतिक अधिकारियों ने 1981 में झुकते हुए एएमयू अधिनियम में एक संशोधन पेश किया, जिसमें स्पष्ट रूप से इसकी अल्पसंख्यक स्थिति की पुष्टि की गई। संशोधन में धारा 2(एल) और उपधारा 5(2)(सी) पेश की गई, जिसमें कहा गया कि विश्वविद्यालय भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान था और बाद में इसे एएमयू के रूप में शामिल किया गया। 2005 में एएमयू ने एक आरक्षण नीति लागू की, जिसमें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 50% सीटें आरक्षित की गईं। इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने उसी वर्ष आरक्षण को पलट दिया और 1981 अधिनियम को रद्द कर दिया। अदालत ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता। एस. अज़ीज़ बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं था। इसके बाद, 2006 में केंद्र सरकार की एक याचिका सहित आठ याचिकाओं के एक समूह ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी। 2016 में एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि वह सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले रही है, और कहा, केंद्र में कार्यकारी सरकार के रूप में, हमें एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित करने के रूप में नहीं देखा जा सकता है। 12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया। रत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की।

 सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

केंद्र की ओर से मामले में एएमयू सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर अपनी लिखित दलील में कहा कि विश्वविद्यालय हमेशा से राष्ट्रीय महत्व का संस्थान रहा है। यहां तक कि आजादी के पहले से भी। केंद्र ने कहा कि जिस संस्थान को राष्ट्रीय महत्व मिला है वो गैर अल्पसंख्यक ही होना चाहिए। केंद्र ने बताया कि राष्ट्रीय महत्व वाला संस्थान होने के बावजूद भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एडमिशन प्रोसिजर अलग हैं। केंद्र की दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यों वाली पीठ ने यूनिवर्सिटी से पूछा है जब विश्वविद्यालय के 180 सदस्यों में 37 ही मुस्लिम हैं तो फिर ये संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान कैसे हुआ।  


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