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दो दशक के भीतर बदल गयी लोगों की मानसिकता, अब खान-पान की बजाय दूसरी चीजों पर बढ़ गया है खर्च

नेशनल सैंपल सर्वे की हालिया रिपोर्ट में रहन-सहन और खान-पान के प्रति देशवासियों में जबरदस्त बदलाव देखने को मिल रहा है। जहां एक ओर 1999-00 से 2022-23 के दौरान खाने-पीने की वस्तुओं पर खर्चे में तेजी से कमी देखी जा रही हैं वहीं खाने-पीने से इतर अन्य पर खर्च में बड़ा उछाल सामने आ रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि यह बदलाव केवल शहरी क्षेत्रों में हो ऐसा नहीं हैं अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव की बयार लगभग समान ही नहीं अपितु शहरी क्षेत्र से अधिक ही है। ऐसा नहीं है कि इस दौरान प्रति व्यक्ति व्यय में कमी आई हो अपितु प्रति व्यक्ति व्यय में लगातार बढ़ोतरी ही देखने को मिल रही है। यह रुझान तेजी से बदलती प्राथमिकताओं को भी स्पष्ट करता है।

एक और तथ्य यह है कि कि खाद्यान्न के उपयोग में कमी आई हैं वहीं अखाद्य सामग्री की खरीद में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। दरअसल यह बदलाव बदलते परिदृश्य को भी स्पष्ट करता है। एनएसएस की रिपोर्ट का समग्र विश्लेषण किया जाए तो खाने-पीने की वस्तुओं में चाहे शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण, दोनों ही जगह ब्रेवरेज यानि की पेय पदार्थों और प्रोसेस्ड फूड यानी की डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों का उपयोग बढ़ा है पर इन्हें भी शामिल कर लिया जाये तो भी खान-पान पर होने वाला व्यय 1999-00 की तुलना में 2022-23 आते आते बहुत कम हो गया है वहीं अखाद्य वस्तुओं पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों द्वारा दिल खोलकर पैसा खर्च किया जा रहा है। लगता है जैसे अब लोगों की समान रूप से प्राथमिकताएं बदल गई हैं। बल्कि यह कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि अब रहन-सहन और सुख सुविधाओं के उपयोग में गांव किसी तरह से भी शहरों से पीछे नहीं रहे हैं। बल्कि रिपोर्ट से तो यही उभर कर आता है और यह स्पष्ट हो गया है कि माल संस्कृति के बावजूद अब उत्पादकों को ग्रामीण क्षेत्र में अच्छा बाजार मिलने लगा है। इसे अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत भी माना जा सकता है तो दूसरी और मानें या ना मानें पर सर्वे से तो यही स्पष्ट हो रहा है कि अब गांव गांव नहीं रहे और वह शहरों से कहीं पीछे नहीं रहना चाहते। यही कारण है कि उत्पादकों द्वारा अब ग्रामीण क्षेत्र को भी टारगेट बनाकर रणनीति तैयार की जाने लगी है।

देश में दो दशक में ही आये ड्रास्टिक बदलाव को आंकड़ों की भाषा में समझें तो ग्रामीण क्षेत्र में 1999-00 में खाद्य सामग्री पर 59.40 प्रतिशत राशि व्यय की जा रही थी वहीं 2022-23 आते आते यह घटकर 46.38 प्रतिशत ही रह गई। खास बात यह कि इसमें तेजी से बदलाव खासतौर से पिछले एक दशक में देखा गया है। इसी तरह से शहरी क्षेत्र की बात की जाए तो 1999-00 में खाद्यान्न पर खर्चा 48.06 प्रतिशत राशि की जाती थी जो 2022-23 आते आते कम होते हुए 39.17 प्रतिशत रह गई। सबसे खास बात यह कि खाद्यान्न में जो कमी आई है भले ही उसके पीछे विशेषज्ञ एक कारण सरकार द्वारा खाद्य सामग्री का निःशुल्क व कम कीमत पर वितरण माना जा रहा है पर यह गले उतरने वाली बात इसलिए नहीं है क्योंकि खाद्य सुरक्षा के तहत एक सीमा तक ही निःशुल्क खाद्य सामग्री का वितरण हो रहा है। हां कुछ हद तक खाने-पीने के बदलाव की बात कही जाती है पर यह भी सही नहीं मानी जा सकती क्योंकि डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों के उपयोग में उतनी बढ़ोतरी नहीं दिख रही जितनी खाद्यान्न के उपयोग में कमी आई है। लगता है जैसे खाद्यान्न से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है। पर इसे भविष्य के लिए शुभ संकेत भी नहीं माना जा सकता।

1999-00 में ग्रामीण क्षेत्र में खाद्यान्न व खाद्यान्न के विकल्पों पर 22.23 प्रतिशत राशि व्यय होती थी जो दो दशक में ही कम होते होते इकाई की संख्या यानी कि 6.92 प्रतिशत पर आ गई है। यह तो गांवों की स्थिति है। शहरों में भी खाद्यान्न व खाद्यान्न उत्पादों पर होने वाला व्यय 12.39 से कम होकर 4.51 प्रतिशत रह गया है। दूसरी और खाद्य सामग्री में ही ब्रेवरेज और प्रोसेस्ड फूड को लिया जाये तो इसका उपयोग शहरी क्षेत्र में 6.35 प्रतिशत से बढ़कर 10.64 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 4.19 प्रतिशत से बढ़़कर 9.62 प्रतिशत हो गया है। दूसरी ओर अखाद्य वस्तुओं की खरीद की बात की जाए तो ग्रामीण क्षेत्र में 40.60 प्रतिशत से बढ़कर 53.62 प्रतिशत हो गई तो शहरी क्षेत्र में 51.94 प्रतिशत से बढ़कर 60.83 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसमें भी ज्यादा उछाल ड्यूरेबल आइटम्स में देखा जा रहा है। लोगों की रुचि वाहन, एसी, फ्रीज, ओवन, फ्लैट्स या मकान आदि की ओर बढ़ा है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि कपड़े-जूते और इसी तरह की निजी उपयोग की वस्तुओं पर व्यय में कमी आई है।

दरअसल यह दो दशक में देशवासियों के बदलते मिजाज की तस्वीर है। पर खाने पीने की वस्तुओं के उपयोग में कमी आना, डिब्बा बंद व पेय पदार्थों के उपयोग में बढ़ोतरी चिंता का विषय होनी चाहिए। इसी तरह से ड्यूरेबल आइटम्स के लिए जिस तरह से पर्सनल और अन्य तरह के लोन लेने व क्रेडिट कार्ड के उपयोग के कारण कर्ज के बोझ तले दबने को भी उचित नहीं कहा जा सकता। देखा जाए तो इनसे आज की पीढ़ी व आज के लोग तनाव, कुंठा, प्रतिस्पर्धा आदि को भी बिना किसी तरह का दाम चुकाये प्राप्त करने लगे हैं। एक समय था जब दो टाइम की दाल रोटी पहली आवश्यकता व प्राथमिकता होती थी, वह दो दशक में ही नेपथ्य में चली गई लगती है। सर्वे से यह तो साफ हो गया है कि आज ग्रामीण और शहरी क्षेत्र लगभग एक रफ्तार से एक ही दिशा में बढ़ रहे हैं और गांव शहर का भेद कम हो रहा है पर खाने पीने की आदतों में बदलाव भविष्य की चिंता का कारण बन सकता है।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा


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